मेरे स्कूल के दिनों में एक अध्यापिका हुआ करती थीं, मुझे कक्षा 6 से 8 तक उन्होंने संस्कृत और गेम्स पढ़ाया और खिलाया। बहुत असाधारण व्यकयित्व था उनका। एक दम सादा पहनावा, तब पहनावे से मतलब साड़ी ही था वो भी पेट या कमर दिखाने के लिए नहीं पहनती थी 'हमारी शिक्षिकाएं' जबकि इसका उल्टा ही दिखता था उनके पहनावे में। हाँ अब हमें बराबरी का अधिकार चाहिए और इसमें कमर पेट दिखाने का अधिकार भी। अच्छी बात है , समय के साथ बदलना भी ज़रूरी है और बदलाव भी कपड़ों में दिखे तब ही तो विकसित देश कहे जाएंगे, क्यूँ ऐसा नहीं होता क्या ? चलिए फिर से प्रसंग पर लौट चले। मेरी वह अध्यापिका कक्षा में जब भी मौक़ा मिलता अंताक्षरी नहीं खिलातीं थी और न ही फिल्मी गानों पर डांस करने को कहतीं थीं, फ़ैशन पर तो वह बोल ही नही सकतीं थी क्यों की मैंने आपको पहले ही बताया कि उनका व्यक्तित्व किसी साड़ी, और ब्लाउज के डिज़ाइन का मोहताज़ नहीं था। जब भी कक्षा में उन्हें मौक़ा मिलता हमें वह बहाने-बहाने से प्ररित करतीं के ख़ूब पढ़ो, आगे बढ़ो, जीवन में मेहनत करो,निराश मत हो। इसके लिय वह बहुत सी कहानियों का सहारा लेती। जिनमें से मेरे स्मृति
Generations have passed but heroism still lingers around few influential ones who have the power to write the history. This era of digitisation has provided a platform for masses to share their life stories & let the common man decide whether their journey has legacy to mark a spot in history. Come along this blog to read the stories of masses who fought the battles of life’s nitty-gritty to fulfil the dreams & passed on legacy to newer generations.