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बारिश के टोटके मौसम के बदलते चक्र ने देशभर का मिजाज बिगाड़ दिया है। जाहिर सी बात है कि असम का मौसम भी बदलाव से अछूता नहीं रहा होगा। उन दिनों आएदिन बादल बरसते रहते थे, जिसका मौसम से विशेष लेना-देना नहीँ था। अचानक बादल घिरते और रिमझिम बरसने लगते और यह इत्तेफाक ज्यादातर स्कूल के लिए निकलने के ठीक 15 से 20 मिनट पहले होता था। मैं मन ही मन फूल उठती की आज तो स्कूल की छुट्टी, मगर मेरे बड़े भाई (फुफेरे) को तो यह बात बिल्कुल नहीँ भाती थी। वह कुछ दिनों पहले ही गांव से हमारे साथ रहने आए थे और अपने साथ टोटकों की अजीबों-गरीब पोटली लाए थे।  बारिश शुरू होते ही वह टोटकों से उसे बंद करने की जुगाड़ में लग जाते। कभी दिया जला के, तो कभी लोहे की छड़ मिट्टी में गाड़ आते...एक फेल होती तो फटाक से दूसरी तरकीब आजमाते। टोटकों पर तो मेरा आज भी भरोसा नहीँ है, पर शायद उनकी कोशिशों पर तरस खाकर मेघारानी भी थोड़ी देर थम जातीं और हमें स्कूल के लिए निकलना पड़ता। कई दफे ऐसा भी हुआ कि आधे रस्ते पहुंचते-पहुंचते फिर रिमझिम बूंदे गिरने लगतीं। मुझे मन ही मन बड़ा गुस्सा आता, लेकिन जाने क्यों ये बात कभी कह नहीं सकी। अजीब बात
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ललित कला विभाग का "देवानंद"- सोनी सिंह

ललित कला विभाग का " देवानंद " देवानंद मेरे लोकप्रिय नायक रहे हैं। इतने प्रिय की उनका बड़ा सा पोस्टर मैंने दीवार पर चिपका रखा था , मगर ललित कला विभाग का " देवानंद " रंग , रूप , गुण किसी मामले में सदाबहार देवजी के सामने नहीँ टिकता था। फिर उसका नाम " देवानंद " कब और क्यों पड़ा बता नहीँ सकती। हमारा उससे पहला परिचय इसी नाम के साथ हुआ।   बात उन दिनों की है , जब बनारस में काशी विद्यापीठ के ललित कला विभाग में प्रवेश लिया था और कक्षाएं शुरू ही हुईं थीं। वरिष्ठों द्वारा परिचय लेने - देने का सिलसिला जोरशोर से चल रहा था। विभाग से सटकर ही भारत माता मंदिर है और दोनों इमारतों को मिलाकर बड़ा सा कैंपस बना हुआ है , जहां बैठकर हम पेड़ की पेंसिल ड्राइंग या लैंड स्केप बनाया करते थे। परिचय के आदान - प्रदान से बचने के लिए कैंपस ही हमारा प्रिय स्थल बन गया था। यहीँ देवानंद की भी मनचाही जगह थी।   मैले कपड़े , बढ़ी हुई दाढ़ी , बेतरत