ललित कला विभाग का
"देवानंद"
देवानंद मेरे लोकप्रिय नायक रहे हैं। इतने प्रिय की उनका बड़ा सा पोस्टर मैंने दीवार पर चिपका रखा था, मगर ललित कला विभाग का
"देवानंद"
रंग, रूप, गुण किसी मामले में सदाबहार देवजी के सामने नहीँ टिकता था। फिर उसका नाम
"देवानंद"
कब और क्यों पड़ा बता नहीँ सकती। हमारा उससे पहला परिचय इसी नाम के साथ हुआ।
बात उन दिनों की है, जब बनारस में काशी विद्यापीठ के ललित कला विभाग में प्रवेश लिया था और कक्षाएं शुरू ही हुईं थीं। वरिष्ठों द्वारा परिचय लेने-देने का सिलसिला जोरशोर से चल रहा था। विभाग से सटकर ही भारत माता मंदिर है और दोनों इमारतों को मिलाकर बड़ा सा कैंपस बना हुआ है, जहां बैठकर हम पेड़ की पेंसिल ड्राइंग या लैंड स्केप बनाया करते थे। परिचय के आदान-प्रदान से बचने के लिए कैंपस ही हमारा प्रिय स्थल बन गया था। यहीँ देवानंद की भी मनचाही जगह थी।
मैले कपड़े, बढ़ी हुई दाढ़ी, बेतरतीब बिखरे हुए बाल, ऐसे थे वहां के देवानंद। एक खास बात और थी वह अपने साथ एक बैग रखते थे। कुल मिलाकर देखकर ही अनुमान लगाना मुश्किल नहीँ था कि वह मानसिक रूप से विक्षिप्त हैं। कभी-कभी विभाग के छोटे फाटक से भी उन्हें अंदर आते हमने देखा था और हमारे जाने तक अकसर वह वहीँ रहते।
कहां रहते थे, बैठने के लिए उन्होंने यहीं जगह क्यों चुनी आदि का अंदाजा लगाना मुश्किल था।
उनसे दूर रहने की सलाह हमेँ वरिष्ठ छात्रों ने दे दी थी, फिर भी कुछ लड़के उनके साथ बातचीत करते दिख जाते। कभी कोई खाने-पीने की वस्तु भी उन्हें पकड़ा देता।
अकसर वह चुपचाप पेड़ की छांव में बैठ आपने-आप में ही खोए रहते, कभी किसी पर मन ही मन नाराजगी हो, गालियों की बौछार भी होती थी, गाली पाने वाला कौन है, यह भी सवाल ही रहा । हम लड़कियां उनसे डरती ही थीं।
"देवानंद"
को लेकर जब यह मालूम हुआ कि वह पढे-लिखे हैं (कुछ का तो कहना था कि वह अंग्रेजी में एम० ए० है),
तब से उनसे कुछ सिम्पैथी सी हो गई। तबसे यदाकदा उसकी ओर ध्यान चला जाता। ऐसे ही एक दिन हमने उन्हें अपने बैग से कई मार्क सीट निकालकर उसे गौर से निहारते देखा। अब हमारे लिए वह डर का नहीँ बेचारगी का विषय था, जो न जाने कब, क्यों, किन परिस्थितियों में घिर काल चक्र में फंस गया था। अपने बारे में बताने लायक उनकी मानसिक स्थिति नहीं बची थी और पूछने भर का साहस हम में कभी नहीं हो पाया। बस, रह गई तो ईश्वर से उनके लिए प्रार्थना।
-सोनी सिंह
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