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एक लेखिका की कलम से....





मेरे स्कूल के दिनों में एक अध्यापिका हुआ करती थीं, मुझे कक्षा 6 से 8 तक उन्होंने संस्कृत और गेम्स पढ़ाया और खिलाया। बहुत असाधारण व्यकयित्व था उनका। एक दम सादा पहनावा, तब पहनावे से मतलब साड़ी ही था वो भी पेट या कमर दिखाने के लिए नहीं पहनती थी 'हमारी शिक्षिकाएं' जबकि इसका उल्टा ही दिखता था उनके पहनावे में। हाँ अब हमें बराबरी का अधिकार चाहिए और इसमें कमर पेट दिखाने का अधिकार भी। अच्छी बात है , समय के साथ बदलना भी ज़रूरी है और बदलाव भी कपड़ों में दिखे तब ही तो विकसित देश कहे जाएंगे, क्यूँ ऐसा नहीं होता क्या ? चलिए फिर से प्रसंग पर लौट चले। मेरी वह अध्यापिका कक्षा में जब भी मौक़ा मिलता अंताक्षरी नहीं खिलातीं थी और न ही फिल्मी गानों पर डांस करने को कहतीं थीं, फ़ैशन पर तो वह बोल ही नही सकतीं थी क्यों की मैंने आपको पहले ही बताया कि उनका व्यक्तित्व किसी साड़ी, और ब्लाउज के डिज़ाइन का मोहताज़ नहीं था। जब भी कक्षा में उन्हें मौक़ा मिलता हमें वह बहाने-बहाने से प्ररित करतीं के ख़ूब पढ़ो, आगे बढ़ो, जीवन में मेहनत करो,निराश मत हो। इसके लिय वह बहुत सी कहानियों का सहारा लेती। जिनमें से मेरे स्मृति पटल पर जो आज भी अंकित है उनमें एक यह कि,उनके पास अपने विद्दार्थी जीवन में एक ही सफ़ेद औऱ बॉडर वाली साड़ी थी जो के खेल में होने के कारण हर रोज़ ही मैली हो जाया करती थी, और वह हर दिन घर पहुँचते ही उसको धोकर कलफ़ डाल कर खींच-तान कर सुखा दिया करतीं थीं और परिणाम यह कि अगले दिन उनके पास बिल्कुल नई जैसी साड़ी पहनने को रहती थी। 

उनके इस कहानी को मैने भी काफ़ी समय तक़ आत्मसात किया जब तक कि फ़ैशन से आँखे कमज़ोर नही हुई थी, हां तबतक उनकी इस कहानी को मैन भी जिया और परिणाम स्वरूप साफ़ सुथरे कपड़े और जूते। उन्होंने दूसरी कहानी सुनाई के वह कैसे जाड़ों में भी सुबह ही उठती थीं और घर का काम कर के ही स्कूल जाती थीं । यह दिनचर्या उनका आजीवन बना रहा, जब वह अध्यापिका बनी तब भी। उन्होंने कहाँ के हम विद्दार्थीयों को हर रोज़ सुबह ओढ़ी हुई रज़ाई को लात मार देनी चाहिए और नींद को कहना चाहिए के तुम मुझ पर हावी नही होसकती, मैं तुम पर आवश्यकता से अधिक समय नष्ट नही करूँगी। वह बोलती,बच्चों तुम अपने मन के स्वामी बनो क्यों कि उसका तुम्हारा सेवक बने रहने पर ही तुम कुछ बन सकते हो। उनके इस बात को भी मैंने तीन सालों तक रोज़ सुबह और शाम अपने हर काम मे प्रयोग करके देखा और परिणाम यह रहा के इन सालो में मैं कक्षा में प्रथम आती रही। 

देखिये जीवन में प्रेरणा मिलेगी अगर हम खुद को थोड़ा कम करके आंकेंगे, थोड़ा झुककर सिर चलने से गर्दन अकड़ती नही, रिश्ते टूटते नहीं और माथे पर बिना चंदन के लेप के भी वह ठंडा रहता है। आपका समय चाहे जैसा भी हो, अच्छा या बुरा पर उसको जीने का आपका पूरा अधिकार है। आप दूसरों को यह अधिकार मत सौंप दीजिये के आपके व्यक्तित्व पर पहले वो मुहर लगाए। आप खुद को प्रेरित करिये, हँसने के लिए, समय से उठने के लिए, अच्छा बोलने सुनने के लिए, प्रयास करते रहने के लिए। और यहां मेरा सार ये है की, अपने प्रेरणाश्रोत पर निगाहें रखिये, उसके भाषण को सुनने का प्रभाव उतना ही पड़ेगा,अपनी आंखों से उसके कपड़ों के स्टाइल को देखने की जगह उसके आचरण को देखा करिये।

-अदिति मोनी

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