ठीक आज ही के दिन १६ मार्च को मेरी मुलाकात एक 'मुसाफिर' से हुई थी जब मैं पंचमढ़ी को जा रहा था. मेरे एक मित्र भी साथ ही थे पर वो कही भी निकले तो लगता है जैसे कोई बड़ा सा पत्थर उन के सर पर पड़ा हो और वो उसी के बोझ को सँभालने में परेशां रहते थे. सही सब्दो में कहा जाए तो जीवन से त्रस्त व्यक्ति जो न तो जी रहा होता है और न ही मर रहा होता है बस सफ़र कर रहा होता है ।
एक बार घर से बाहर निकलने के बाद मेरे चेहरे की रौनक देखते ही बनती है गुलफ़ाम कह सकते हो लगता है किसी ने 'कैद से रिहाई दी है यार ने कैसी जुदाई दी है' अरे शायराना होने का नहीं; बात बहार निकलने की और वो भी शहर से बहार कही घूमने जा रहा होता हूं तो खुद ही मेजबान बनकर अपनी मेहमाननवाज़ी में कोई कसार नहीं छोड़ता।

मुसाफिर का सांचा भी शायद वही था जो मेरा है उसने मुझे देखते ही पूछा "आप की पहचान"; मैं समझदार था मैंने अपना चेहरा अपने दोस्त की तरफ घुमाते हुए प्रश्न उनको लेकर हुआ हो छोड़ दिया; चिर परिचित अंदाज में उन्होंने अजीबोगरीब चेहरा बनाया जैसे उस मुसाफिर ने कोई गुनाह कर दिया हो और फिर अपना सर निचे कर के अख़बार पढ़ने लगे। अब तक मेरी बॉगी के तीन मुसाफिर आ चुके थे अब दो मै और मेरा दोस्त और तीसरा हमसफ़र। कुछ देर बाद टीटी आया और उसने टिकट जांचने के बाद घोषणा की चौथी सीट खाली जाने वाली है।
एक राऊण्ड अपने मुसाफिर से हार कर मै अब चुप तो रह नहीं सकता समयानुकूल मैंने पूरी स्थिति अपने फ़ेवर में पाकर तोप के गोले नुमा प्रश्न अपने मुसाफिर पर सीधा दागा।
आप की दिल्ली में शायद कबाड़ की दुकान है मुझे लगता है हम पहले कई बार मिल चुके है ?
मुसाफ़िर- आप को कैसे मालूम क्या आप दिल्ली के रहने वाले है?
"मैं" इसमें अहम् का बोध न हो तो पाठको के लिए मैं की जगह गुलफ़ाम ठीक रहेगा।
गुलफ़ाम - अरे नहीं दिल्ली तो महा वाह्यात शहर ठहरा वहां रहना भी कोई रहना हैं। इसके बाद मैंने अपने मित्र की ओर देखकर शीशे से बहार गुजरती कई सारी चीजों की और इशारा करने हुए कुछ बाते की ।
अब तक मुसाफिर समझ चूका था कि किसी पके चावल से मुलाकात हो गई है।
मुसाफिर- मेरा जनरल स्टोर है दिल्ली में। वही बगल में कबाड़ की दुकान है तो आना-जाना लगा रहता है।
गुलफ़ाम - भला ये भी कोई काम है दिन भर बनिया गिरी करो और शाम को उन्ही चीजों को खाना पड़ता है जिसे दिन भर कंकड़ मिला कर बेचा हैं।
मुसाफ़िर - अरे नहीं मैंने अपने दुकान में सभी उम्दा चीजे ही रक्खी है मज़ाल है कि कोई गलती हो जाए. ग्राहक मेरे लिए भगवान का अवतार है।
मैंने अपने दोस्त को दूसरी ओर की खिड़की की ओर इशारा करके कुछ गुजरती चीजे और दिखाई और उससे बाते करने लगा।
अब मुसाफ़र अपना हथियार रख चूका था केवल समर्पण बाकी था।
मुसाफिर- आप सिगरेट लेंगे काफी देर हो गई है कोई स्टेशन नहीं आया नहीं तो चाय पी जाती।
गुलफ़ाम- आप सुलगाएँगे तो एक दो कश जरूर मार लिया जायेगा वैसे आप को टीटी से डर नहीं लगता आजकल इन लोगो ने मिलकर फ़ाईन बढ़ा दिया है सिगरेट पिने पर।
मुसाफ़िर - लगता तो है पर आप साथ है तो जानता हूँ टीटी की मजाल नहीं कि हम लोगो से कोई मुजलका ले सके।
हम लोग सिगरेट के कश उड़ा रहे थे और मेरा मित्र नाक पर रुमाल रखे और ध्यान से पेपर पढ़ने लगा।
आगे कहानी और भी दिलचस्प मोड़ लेती है पर फिर कभी।
हा इतना जरूर बता दू कि मुसाफ़िर ने हमारे पंचमढ़ी घूमने का सारा भार अपने ऊपर ही लिया और लौटते वक्त मेरा फ़ोन नम्बर।
विरासत ये है की अकल भैंस से बड़ी होती है।
-सिद्धार्थ सिंह 'शून्य'
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