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नाट्यमंचन



ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥

लेखनी की पारम्परिक धारा टूट चुकी है। जिस प्रगाढ़ प्रारभ्ध भूमि पर उसका जन्म हुआ वो मरणासन्न है और धूं-धूं करती चिताओं पर हूतात्माओं की चट-चट जलने की धवनि चहुंओर प्रतिध्वनिओं में सुनाई पड़ती है। एक कथाकार शमशान भूमि में प्रवेश करता है और अट्ठहास के साथ कुछ बोलता है।  

कथाकार - मृत्यु शैया पर लेटी माटी और जलन के साथ आत्माओं का समागम उस निराकार से।  हा हा हा ब्रह्म फांस है क्या ये रचनाकारों का। 

जलती चिताओं की ज्वाला भभक कर हृदयविदारक प्रतिध्वनियों और ध्वनियों के अगाढ़ आवाजों से गूंज उठती है।  

कथाकार - क्या हुआ मृतुय्ञ्जय की परम्परा टूट गई।  या तुम्हारे कर्मो का फ्रतिफल मृत्युंजय ने स्वयं धारण कर लिया मुण्डो के हार के रूप में।  

महाशमशान में चिताए अब कुछ मद्धिम हो गई है और ज्वालाएँ शांत वातावरण में केवल धुँए के अपार बादल के रूप में ऊपर उठ रही है अनंत  आकाश को छूने को।  

कथाकार - तुम्हारी लेखनी के सारे पन्ने भी जला दिए गए है कि तुम्हारा नमो-निशां तक न बचे। हा हा हा मृत्युंजय, तुम सभी मृत्युंजय हो गए महाकाल के मुण्ड माल में धारण किए जाओगे।  

इतने में कोमल पैरो से मधुर पैजनियो की ध्वनि के साथ एक माया स्वरुपनी सुंदरी का महाशमशान में प्रवेश होता है और कथाकार संभल कर अपने अट्ठ्हास को विराम प्रदान करता है।  माया सभी चिताओं की राख को माँ गंगा में प्रवाहित करती है और कुछ ध्वनियाँ उत्पन्न करती है।  कथाकार पुनः अट्ठहास के साथ माया को नमन कर अपने क्रोध की ज्वाला में जलता हुआ धुँए के बदल के समान अपने वचनों का प्रहसन करता है इस महाशमशान को आनंदवन बनाने का प्रयास करने वाली माया तुम केवल भ्रम हो।  

कथाकार -  पंच भूतो को जल में प्रवाहित कर तुम वर्षा का इंतजार करना इन साहित्यकारों की पुनः रचनाओं का भी; बाकि मैं शव को सत्य मान कर अट्ठहास करता रहूँगा। अहा हा हा हा हा ..... !

-मृत्यु से जीवन के प्रारम्भ होने वाले राग के सप्तम होने की गारंटी हैं। 
~शून्य


- सिद्धार्थ सिंह 


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