बात उन दिनों की है जब में कक्षा १ या २ में पढ़ रहा था। उस समय शहर में इतनी भीड़-भाड़ नहीं हुआ करती थी बच्चे मस्ती से टहलते हुए अपने विध्यालय की और प्रस्थान कर सकते थे और गाहे- बगाहे रस्ते में टूटी दीवारों पर चढ़ते हुए; बालु के ढ़ेर में खेलते, छोटे सीपी और पत्थर बिन्ते; कपड़े मैले करते बड़े शान से अपने स्कूल में पहुँचने की मुनादी दोस्तों मित्रों के साथ शोर मचा कर किया करते थे।
मेरे स्कूल के रास्ते में सड़क किनारे एक छोटी सी जगह बन गई थी जहाँ एक वृद्ध जोड़े ने अपनी बड़ी सी दुनिया बसा रख्खी थी। मिट्टी की दीवार, फूस की छत और उसके बगल में थोड़ा सा मिट्टी का ऊँचा ढ़ेर बना कर बैठका बनाया गया था।
मेरे स्कूल जाते समय वृद्ध पुरुष रस्सी बाटता रहता और वृद्धा घर के अंदर खाना पका रही होती जिससे निकलने वाले धुँए को फूस की छत के ऊपर ऊँचा उठता दूर से देखा जा सकता था। जाने क्या पका रही होतीं थी वो कि सुगंध मेरे जहन में आज तक घर कर गया है जो शायद उन यादों को आज यहाँ लिखने को प्रेरित कर रहा है। पर प्रेरणा कहाँ तक उस महक का स्वाद दिला सकती है ख़ैर।
दोपहर को स्कूल से लौटते समय वृद्धा रस्सी बांट रही होती और वृद्ध अपने मिट्टी नुमा बरामदे में बैठ कर हुक्के का कश भर रहा होता। एक बार स्कूल से लौटने में देर हो गई हल्की शाम की धुँधलकी रौशनी में उस रास्ते से लौटना बच्चों के मन को भूत-प्रेत के कुविचारों से न भरे ऐसा हो ही नहीं सकता ख़ैर ये भी जाने देते है और मेरे सरपट घर लौटने के बीच मैंने पाया वृद्धा और वृद्ध दोनों साथ मिल कर रस्सी समेट रहे थे और एक लकड़ी की डंडी में गोल -गोल लपेट रहे थे।
उस दिन मैंने रस्सी बांटने और उसे तैयार करने की पूरी कला सीख ली।
कहानी समय के साथ आगे बढ़ गई और वृद्ध के स्वर्गवास हो जाने के बाद कुछ दिनों तक वृद्धा वहां दिखाई देतीं रही। फिर कालानुक्रमानुसार उस जगह बड़ी से बिल्डिंग ने रंग रोगन के साथ अपने बहार निकलने का बड़ा सा फाटक बनवाया। और एक कुशल जोड़े की कहानी कही यादों में खो गई मुझ जैसे सिरफ़िरे के।
रस्सी बांटना और उसकी शान बढ़ाना शायद बच्चों का खेल नहीं पर खेल-खेल में वो ये सीख जरूरु जाते हैं।
~ शून्य
-सिद्धार्थ सिंह
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