शोध में प्रवेश पाने का अपना ही मजा हैं आप के पास अपार समय होता है। घरवालों और आप के शिक्षकों को आप के नकारेपन की अंतिम सिमा का प्रसस्ति पत्र के रूप में डॉक्टर प्रदान करने को पर्याप्त समय होता है जब आप कागज का एक दुकड़ा भर पाने को अनगिनत साल देने को तैयार हो जाते है इस बीच जनसामान्य आप को महाखलिहर कहे तो इस से बड़ा सम्मान मेरे हिसाब से नहीं हो सकता। अपने शोध के पहले ही साल मैंने अपने विश्वविद्ध्यालय के पास एक पान की दुकान खोज निकाला जहां मैं अपना सारा समय सार्थक कार्यों में लगा सकता था। वही मेरी मुलाकात मेरे बिरहा गीतकार से हुई। पेशे से वो टाली चलता था और गाहे बगाहे मरे हुए लोगो को ठिकाने पर भी पहुँचा दिया करता था।
उस का पहला बिरहा राग सुनने का मौका तब मिला जब जेठ की तपती गर्मी में हम कुछ मित्र कदम्ब के पेड़ के निचे बीच सड़क पर उसकी टाली पर आराम फरमा रहे थे। बिरहा के बोल बता दिया तो शोध की शिक्षा बुरा मान जाएगी। उसकी कहानी कुछ ऐसी थी एक बार एक राजा ने अपनी सुन्दर और सुशील लड़की के लिए वर की तलाश शुरू की। तलाश रुकती है एक बीर योद्धा के साथ और दोनों विवाह के पश्चाताप ओह पश्चात अपने घर की ऒर प्रस्थान करते है। बीच राह में एक दूसरे राज्य का फ़ौजी दस्ता उनसे टकरा जाता है और उस दस्ते के मंत्री की निगाह उस खूबसूरत लड़की पर पड़ती है। फिर क्या वो बहाने से उस योद्धा को जल के पास ले जाकर उसका गला काट देता है। उसके प्राण नहीं निकलते तो उसे सुग्गा बना के अपने राज्य ले जाता है साथ में राजकुमारी को भी अपने राज्य ले जाने का प्रयास करता है पर राह में उसके पिता के मंत्री उन लोगो को देख लेते है और उस राजकुमारी को पुनः रास्ते से ही अपने राज्य वापस ले आते है।
इस प्रकार विरह की वेदना अपने चर्म पर हर बोल और शब्द के साथ पहुँचती जाती हैं और तप्त धूप शाम के लाल रंग में डूब जाने को होने लगती है। अंततः राजकुमारी अपने वीर योद्धा को पुनः मिल जाती है।
आगे उस 'बिरहा गीतकार' के और भी किस्से है पर फिर कभी.....!
-मृत्यु से जीवन के प्रारम्भ होने वाले राग के सप्तम होने की गारंटी हैं।
~शून्य
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-सिद्धार्थ सिंह
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