
पापा की दुलारी और मां की राजा बेटा मीना को अपनी लकीरें खुद ही गढ़नी थी, भाग्यदेवी ने अब इसके संकेत देने शुरू कर दिए थे। पिता अचानक दुनिया से विरक्त हो गए। मौका देख चाचा ने खेती-बाड़ी का कामकाज अपने हाथों में ले लिया। उसकी मां सीधी-सादी गौ थी, सो घर चाची के अधिकार क्षेत्र में आ गया। मीना भी अब सोलह बसंत पार कर चुकी थी। उसके लिए मशक्कत से रिश्ता खोजा जाने लगा। यह जिम्मेदारी चाचा ने आपने कंधों पर ले रखी थी और 17 तक पहुंचते-पहुंचते मीना का रिश्ता तय हो गया। वर ऊंचे परिवार का लड़का था, जो आसाम में रहकर अच्छी कमाई करता था। पढ़ा-लिखा भी काफी था, लेकिन मीना को इन सबसे क्या लेना-देना था। उसके लिए यह सब मुसीबत था, जिसमेँ न उसकी दिलचस्पी थी, न सहमति। सखियां भी इस मुद्दे पर मीना से उलट सोच रही थीं, तो उन्होंने भी उसे ही समझाया। वह दिन भी आ गया, जब हाथ पीले कर मीना को विदा कर दिया गया। कार ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रही थी उसकी हर प्रिय वस्तु पीछे छूट रही थी। विरह था, या अंजान संग होने का भय उसकी सिसकियां लगातार तेज होती जा रही थीं। ऊब कर साथ बैठे पति ने कहा "गाड़ी रोक कर इन्हें उतार दो।" अपने स्वामी से उसका यही पहला परिचय हुआ।
ससुराल मीना के घर से काफी अलग था। घर के दायरे में ही बहुओं का संसार सिमटा था। यहां तक की छोटी बच्चियों तक के आसपास जाने पर पाबंदी थी। वैसे, अपनी मृदु बोली और कामकाज में पारंगत होने से छोटी बहू ( मीना) ने जल्द ही सबके दिल में जगह बना ली, किंतु उसके अंदर के खालीपन से सब अंजान ही रहे। आखिर सोने का पिंजरा भी कैद ही होता है। कुछ ही दिनों में स्वामी आसाम चले गए और वह चहारदीवारी की मैना बनकर रह गई। मायके-ससुराल रहकर कुछ वर्ष बीत गए। इस बीच खेल-खिलौनों के साथ ही डॉक्टरी का सपना भी दफन हो गया। इसी बीच अचानक संयोग बदला और मीना आसाम पहुंच गई। पति के लिए वह लक्ष्मी थी, उसके कदम रखते ही कल तक दूसरों के लिए काम करने वाला व्यक्ति ठेकेदार बन गया। अब तक वह एक पुत्री की मां बन चुकी थी। सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था, फिर दूसरी बेटी भी हो गई। यह बिटिया अपनी मां के लिए भाग्यदेवी बन कर आई। उदास मीना को धन के साथ ही स्वामी का भी अनुनय-प्रेम और भरपूर साथ मिला। सुख के कुछ वर्ष ही जल्द ही पंख लगा उड़ गए। एक बार फिर बेटा न होने के कारण मीना को घर- बाहर के ताने मिलने लगे। उधर स्वामी की संपन्नता बढ़ने के साथ ही उनकी व्यस्तता भी बढ़ने लगी। साथ ही, परिवार का दखल भी बढ़ने लगा। समूचे परिवार के एकमात्र कमाऊ पूत को बहू के साथ अकेले छोड़ने का रिस्क नहीँ लिया जा सकता था।
परिणामस्वरूप पैसा, कार, रुतबा सबकुछ होते हुए भी व्यस्त पति का साथ संभव नहीं था और परिवार के लिए वह सिर्फ ईर्ष्या का विषय थी, जिन्हें "मेम साहेब" उपनाम दिया गया था। आहत मीना लोगों के जमघट में अकेली थी। बचपन के दिन उसे बहुत याद आते, मगर उतनी दूर से मायके आना ज्यादा संभव नहीं हो पाता था। उन दिनों फोन भी कम घरोँ में ही होते थे। हालांकि, उसने महिलाओं की किटी पार्टी, सिनेमा-सर्कस मेँ मन रमाने का बहुत प्रयास किया, पर रम नहीं पाई। खुश मिजाज मीना उदास रहने लगी और उसका स्वस्थ शरीर मुरझाने लगा। पति से भी यह बात कहां छिपी रही। पति उसकी एक हंसी, उसके स्वास्थ्य के लिए सबकुछ लुटाने को तैयार थे। कई वैद्य- हकीम को दिखाया गया, लेकिन सबकुछ जस का तस रहा। इस बीच वह एक पुत्र सहित चार बच्चों की मां बन गई।
नीयति तो जैसे मीना के साथ खेल रही थी। काल के हाथों विवश मीना को एक बार फिर न सिर्फ उठना पड़ा, बल्कि बच्चों की खातिर हंसना भी पड़ा। छोटे बच्चों को छोड़ पति काल का ग्रास बन गए। उनके जाते ही अपनों-परायों में फर्क करना मुश्किल हो चला। हठी मीना ने तो जैसे हर बाधा को लांघने का प्रण कर रखा था। जीना उसके लिए कभी आसान न था, अब आर्थिक दुश्वारियां मुंह बाए खड़ी थीं। हर बाधा पार कर उसने न सिर्फ बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाई, बल्कि हर मुश्किल घड़ी में बच्चों के सामने ढाल बन खड़ी हुई। वक्त से लड़ते हुए उसने बच्चों का शादी-ब्याह तक कर दिया, किंतु नीयति को उस पर न तो पहले दया आई, न अब आने वाली थी। आज भी बाधाएं रूप बदल-बदल कर कभी छल, तो कभी बल से उसे हराने की अनवरत कोशिश में जुटी हैं। कई बार निसहाय हो मीना धरा पर गिर पड़ती है, अगले ही पल फिर हिम्मत समेट उठ खड़ी होती है। क्योंकि, उसकी जिद है, जीते-जी उसे पार कर काल उसके बच्चों का भाजन नहीँ कर सकेगा। सालोँ बाद भी वह निडर, निर्भीक डटी हुई है और उसे हराने को आकुल काल भी वक्त के चौसर पर नित नए षड्यंत्र रच रहा है।
- सोनी सिंह
*फोटो क्रेडिटेड तो वेबसाईट
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