बेचू
शानदार शख्शियत का मालिक, आज तक मैंने ऐसा रोबदार चौकीदार नहीं देखा। उसके परिवार में दो पुत्रिया और एक पुत्र थे कही भी शिकन नहीं थी उसके चेहरे पर चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए वो समय से चट्टान की तरह अपनी ड्यूटी बजा के ही जाता था। उम्र होगी ७० साल जब में २००० ई० में अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर रहा था। मसलन अगर उसे शोले फिल्म के अंग्रेज के ज़माने के जेलर की पद्वी दी जाए तो कमतर नहीं होगा। (फोटो credited to JD Art & Design Twitter)
हाथ में मोटा सा डण्डा, रौबदार लम्बी मूछें चिपटा हुआ गठीला चेहरा और कम से काम साढ़े ६ः फीट लम्बा बैताल था वो।
हमारे स्कूल में कक्षा १० तक हाफ़ पैंट पहन्ना अनिवार्य था तो हम जिद्द्दी लौंडे घर से रंगीन फूल पैंट पहन कर स्कूल के गेट तक जाते और फिर बैताल के हाथो घूमते डण्डे के सामने अपनी पतलून आधी करते थे।
दिन भर उसकी चौकस निगाह जैसे हमी लौंडो पर रहती थी पानी पिने के लिए भी बहार निकले तो हमारी चुगली हो चुकी होती थी और गुरु जी के पतली छड़ी से पिटाई का सिलसिला रोजमर्रा की दिनचर्या बन चुकी थी। आदमी भी पुतले के तरह होता है जिस साँचे में ढाल दो कुछ दिनों में उस पुतले का रूप धारण कर लेता है। ये बड़ी फिलॉसोफी आज समझना आसान है पर उस समय बालक मन कहा समझता था।
खेल के लिए लालायित निगाहें बेचू की शातिर निगाहों से बच-बचा के खेलने की जगह ढूंढ़ ही लेता था फिर चाहे हैण्ड क्रिकेट ही क्यों न हो।
बेचू की यातनाओ की कहानी और सुनाई तो रात को कोई न कोई गाली जरूर खा जायेगा; कहते है न अंतर्मन में पुरानी दुर्भावनाएँ सदैव कचौट पैदा करती रहती है और समय पाकर याद आने पर किसी निरीह को भुक्त
भोगी बनती है।
तो कहानी का परवर्तिति मोड़ जोड़ लेते है एक बार खेलते समय मैदान में मेरे कंटाप पर लेदर की बॉल लगी और माथा भिन्ना गया। मरे को मारे शाहमदार की तर्ज पर एक दो नव उत्साही लड़के मेरे ऊपर से भी कुचलते हुए निकल गए।
निरीह लौंडे को बेचू ने देख लिया और बिना किसी के बताए, बिना छुट्टी लिए, अपनी दिन की तनखाह को बलिदान करते नजदीक के हॉस्पिटल में मरहम पट्टी करवा दी। प्यार का भाव तो उसके प्रति पूरे स्कूल भर जागृत नहीं हो पाया पर शायद इस कहानी के माध्यम से उसके बारे में सोचने का कुछ और मौका मिल जाए।
आदमी को उसकी शक्ल नहीं अक्ल बनाती है और जो उसके पास होते है वही उसे सही समझते है।
~ शून्य
सिद्धार्थ सिंह
Comments
Post a Comment