शब्दों को अपने हिसाब से तोड़ना, मरोड़ना, उसे लेखनी के मनचाहे सांचे में ढालना, अर्थ को प्रभावित करना या यूं कहें कि शब्दों की जादूगरी लेखक का अधिकार है। लेकिन यहां मेरे मामले में उक्त अधिकार में, मेरा अपना दखल न के बराबर ही रहा है। हो भी कैसे! हमसे तो शब्दों की अभिव्यक्ति में भी अकसर चूक हो जाती है। खैर! मेरी इस रचना की नायिका का एक "कुकुरिया" है, जिसके ममत्व ने न सिर्फ मेरा ध्यानाकर्षण किया, बल्कि मेरे अंदर की ममता को और दृढ़ कर दिया।
बिटिया को स्कूल छोड़ते वक्त अलसुबह वह मुझसे फाटक पर टकरा जाती थी। यह उन दिनों की बात है, जब वह मातृत्व को प्रतीक्षारत थी। फाटक पर करीब दस मिनट हम (मैं और बिटिया) स्कूल बस की प्रतीक्षा करते थे। हमारे साथ हमारी बिल्डिंग का चौकीदार यानी रक्षक शीरो ( कुत्ता) भी होता था। सूर्य देव भी अभी पूर्व में कहीं घुप नीला चादर ओढ़े अलसा रहे होते थे, तो सड़क पर चहल- पहल भी न के बराबर ही होती थी। ऐसे में, शीरो और उसके आसपास मंडरा रही नायिका पर हमारी दृष्टि अटक सी जाती। वह शीरो को दुलारती- पुचकारती, नायक की दुत्कार से आहत हुए बिना, पलट- पलट कर उसके पास आती।
कुछ दिनों यूं प्यार- मनुहार चलता रहा, फिर पर्दे के किरदार की कहानी ऐसी बदली, जो मेरी कल्पना से परे था। कुकुरिया प्यारे- प्यारे नन्हें-मुन्नों की मां बन गई। दिन में कई दफे मेरी नजर उस ओर गई भी, लेकिन स्कूल बंद होने के कारण अलसुबह मुलाकात का सिलसिला इन दिनों बंद था। व्यस्त दिनचर्या में यह बात आई- गई हो गई। फिर कई रोज बाद बिटिया का स्कूल खुला और रोजाना की तरह मैं और बिटिया फाटक पर पहुंचे। आदतन शीरो भी हमारे साथ हो लिया।
हम जैसे ही फाटक तक पहुंचे कुकुरिया फुर्ती से उठी, अपने खूंख्वार दांतों को निकाल गुर्राहट की अजीबोगरीब आवाज निकालते हुए अगले ही पल उसने शीरो पर हमला बोल दिया। मैं अचंभित सी कुछ पल को बिटिया के साथ जड़ हो गई। फिर पास ही बेसुध पड़े पिल्लों को देख मामला समझ में आ गया। शीरो यानी उसके प्रिय नायक को भी अपने बच्चों के पास फटकने देने का जोखिम उठाने को वह तैयार नहीं थी। कल तक का नायक कूं-कूं करता कोने में दुबक गया था। नायिका फिर अपने पिल्लों के पास जा निश्चिंत हो लेट गई और उन्हें दुलारने लगी। बस बिटिया को लेकर मेरी आंखों से ओझल हो गई। मैं कुछ समय तक नायिका को अपलक देखती रही, फिर गंतव्य की ओर बढ़ चली।
- सोनी सिंह
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