माड़वाड़ी आंटी
हम उन्हें इसे नाम से जानते और बुलाते थे आज भी याद है उनका वो खूबसूरत चेहरा जो सदैव गुलमोरह के फूलो सा खिला रहता था. अम्मा की सबसे पक्की सहेली जो गाहे -बगाहे उनके काम आया करती थी. गरीबी का वो रूप देख चूका हु जो मैंने अपने बस के बीच वाले पायदान की कहनी में बताया था; वो सीढ़ी का बीच वाला पायदान जहां फ़सा लेखक अभी तक सांस लेने भर की भी जगह नहीं ख़ोज पाया है।
कुल मिलाकर उनके ७ पुत्र थे और सभी व्यापर के कामो से व्यस्त रहते थे. उनके पति का वृहद् व्यापर हाल ही में दिवालिया हुआ था पूरा परिवार मिलकर व्यापर को नए सिरे से शुरू कर रहा था. सबसे छोटे पुत्र का नाम अभिनव था उससे मेरी थोड़ी जान पहचान और बोलचाल थी बाकि सभी मुझसे इतने बड़े थे कि जान पहचान तो दूर कि बात है वो मुझे केवल नाम से जानते थे, मेरे लिए बस इतना ही काफी था।
आज जब २७ साल पीछे मुड़ कर देखता हुं तो पलकों पर निरीह बुँदे स्वयं विस्मृत स्मृतियों का एक जाला सा बुनती है जैसे मकड़ी बुनती है जिसमे बरसात के बाद नन्ही-नन्ही बुँदे फसी शायद बहुतो ने देखा होगा। वो बरसात की बुँदे जाले से गिरती नहीं है हा रिस जरूर जाती है या कुचल दी जाती है मकड़ियों के द्वारा। अगर बची तो उनका वाष्प बनाना नियति ही है।
न जाने कितने काम वो अम्मा को दिया करती थी साड़ी में फाल लगाना, बिंदी चिपकना, पिको करना, मोतियों की माला पिरोना, कागज के फूलो को तैयार कर गुलदस्ते बनाना, स्वैटर बुनना और न जाने क्या-क्या हम भाई बहन मिल कर अम्मा का हाथ बटाते और ये सारे काम मुझे आज तक याद है. मेरे हिसाब से विस्मृत स्मृतियों का वाष्प बनान ही अच्छा है।
दोनों परिवारों में समानता भी एक सी थी पिता जी के स्वर्गवास होने के पश्चात् हमारा भी खेलता खिलता परिवार बिखर कर खुद को जोड़ने में जुटा था।
इतने वसंत देखने के बाद अब शायद खुले तौर पर कह सकता हु कि बदला बहुत कुछ है पर इंसानों का बदलना पतझड़ सा दुखदाई लगता है।
"मेरे हिसाब से विस्मृत स्मृतियों का वाष्प बनान ही अच्छा है।"
-सिद्धार्थ सिंह 'शून्य'
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