एक बार कोलकाता जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ. नदी में जैसे जल का प्रवाह सदैव बना रहता है वहां भी सड़को पर लोगो का वैसा ही प्रवाह निरंतर बना हुआ था. बड़ा जिवंत और जीवट शहर है ऐसा मुझे पहली बार में ही देखकर आभास हो गया; रसगुल्ले सी मीठी जुबान और उतने ही मीठे और रसीले लोग. सच कहु तो कोलकाता से बेहतर कोई और शहर हो ही नहीं सकता किसी भी परिस्थिति में रहने के लिए.

सबसे निचे वाले पायदान पर खड़े लोग चलती बस से निचे नहीं उतर सकते, पीछे खड़े लोग बीच वालो को सास भर जगह लेने के लिए भी पीछे नहीं आने देते अगर किसी ने कोशिश भी की तो धकेल कर ससम्मान उसे ऊपर कर दिया जाता है.
ऊपर वाले लोगो को सुविधाओं का पूर्ण लाभ लेने का पूरा हक़ है; सीट पर बैठ सकते है' बस में चहल कदमी कर सकते है, कथनानुसार प्रभु की जैसी मर्जी.
बीच वालो को अथक प्रयास के बाद अंदर आने और सुविधाओं का भोग लगाने का यदा कदा अवसर कोई ऊपर वाला ही देता है और बाद में फिर वही बीच की जद्दोजहद.
कहानी का मर्म बस के दरवाजे के तीन पायदान ही है.
'शून्य'
-सिद्धार्थ सिंह
कलकत्ता तो नहीं जाना हुआ अब तक पर अब जाकर इन तीन पायदानों का सच पता करना ही है।।। बहुत अच्छी लेखनी।।।
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