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दर्द और मातृभाषा



जब दर्द गहरा हो तो सारे ख्याल मातृभाषा में आते है। वैसे तो हिंदी पढ़े और लिखे सदी बीत चुकी है । आखिरी बार इस भाषा का प्रयोग दसवीं कक्षा में किया गया था, उसके बाद हम हिंदुस्तान में रहने वाले अंग्रेज हो गए। जिन्हें अंग्रेजी भाषा का ज्ञान हो या ना हो मगर सबसे पहले वो हिंदी भूल जाते है।

खैर छोड़िए यहाँ भाषा तो मुद्दा है नहीं यहाँ मुद्दा है दर्द!असह्य, प्रचंड और विचलित कर देने वाला दर्द। आज ये दर्द किसी एक विभाग का संरक्षक नहीं रहा है, इसने प्रगति की है और मानसिक , शारिरिक , आत्मिक और वित्तीय हर विभाग में अपनी पैठ बना चुका है। इस असहनीय दर्द में याद आती है "माँ" हिंदी में! और याद आती है माँ की सिखाई हुई हिंदी कविता-

बुंदेलों हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी



और फिर माँ कहती थी बेटा रानी वीरांगना थी मर गयी लेकिन हारी नहीं तो कभी हार मत मानना समय बदल दोगी।

माँ के शब्द याद आते ही मन का दर्द कम हो जाता है और वो कह   उठता हैं:-

Woods are lovely dark and deep
But I have promises to keep
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep



By निकिता सिंह

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