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विचित्र सत्य- सिद्धार्थ सिंह


भूत-प्रेत में विश्वास करना उतनी ही बड़ी मूर्खता है जितना की एलियंस की कहानी पर अपने विचार व्यक्त करना।  पर कभी-कभी जीवन में कुछ घटनाऐं ऐसी घटती है की चंद शब्द उन पर लिखना जरुरी हो जाता है। आज से ठीक-ठीक २० बर्ष पहले की घटना के विषय में एक कहानी जरूर लिखना चाहूंगा साथ ही आप से अनुरोध भी करूँगा की इसको असत्य साबित करने को कोई वैज्ञानिक तर्क जरूर दे और मेरे 'विचित्र सत्य' की कहानी को असत्य साबित करें।     


हमारा पूरा परिवार गर्मी की छुट्टियों में नानी के यहाँ चला जाता था और आम/ लिची के मज़े उड़ाता था।  मुझ जैसा मुर्ख या यायावर उस समय भी उतना ही घुमक्ङ था जितना आज है।  

एक शाम जब पूरा परिवार घर पर भोजन की तैयारी कर रहा था तो मैं अकेला ही गाछी(आम और लिची का बगीचा ) की और निकल गया। अँधेरा इतना हो चूका था कि १५ मीटर की दुरी से कुछ भी नहीं दिख रहा था।  घर के पिछवाड़े से जनेरा के खेत शुरू होते थे और उसके बाद बसवाड़ी। जब मैं जनेरा के खेत को पार कर रहा था तो बसवाड़ी में अजीब सी आवाज़ आ रही थीं। मुझे लगा बसवाड़ी के उस पार कुछ दुरी पर सड़क पर कोई माजरा होगा।  जब मैं जनेरा की मेड़ पार कर रहा था तो वही पर एक ख़जूर का पेड़ था लगा जैसे उस के ऊपर से कोई कूद कर बसवाड़ी की और भागा।  इतने नजदीक से अगर मच्छर भी उड़ता तो दिखाई देता पर सही कहुँ तो कोई भी दिखा नहीं; खैर।  

आगे ही माता जी की दोस्त का घर कुछ दुरी पर था जो रिश्ते में ही थे तो मैंने अपने कदम बढ़ाए और जल्दी से वहां पहुंच गया। वहां पहुंच कर कुछ दिमाग शांत हुआ।  उस दिन उनके यहाँ कोई नहीं था और गाछी अभी भी ४०० मीटर आगे था।  वापस लौटना बेमानी था यायावर की यायावरी के अहम् को चोट पहुँचती।  

तो एक मात्र उपाय था आगे बढ़ा जाए।  

जब तक गाछी पहुंचा तो अँधेरा हो चूका था और केवल अँधेरे की अपनी विचित्र रौशनी में ही पेड़-पौधे और रास्ते  दिख रहे थे।  

जब मैं गाछी पहुंचा तो वहा कोई भी रात की चौकसी के लिए मचान पर अभी तक नहीं पहुंचा था। सुबह के बीने आमों में से मैंने एक-दो का भोग लगाया और वही बैठा किसी के आने का इंतजार करने लगा। दूर कही रोने की आवाज लगातार आ रही थी पर गाँव में आवाजे गूंजती ही रहती है इसमें कुछ भी नया नहीं था।  हा इतना जरुर था की गाछी के आगे ऊख के कटे ठूठों के कुछ और आगे मुरघाटिया पर कोई किसी को फूँक रहा था मुझे पूरा यकीन हो गया की रोने की आवाज वही से आ रही होगी।  

अब कहानी "विचित्र सत्य" की और मुड़ती है कुछ ही देर में मुझे कुछ जलती हुई गोल सी आकृति घूमती दिखाई दी। उनकी सख्या धीरे धीरे चार पांच की हो गई और वो तेजी से मेरी ऒर आ रही थी।  अब तक मैं मचान से कूद कर आधी गाछी पार कर चूका था और वो जलती गोल चीज उतनी ही तेजी से मेरी ओर आ रही थी। गाछी में प्रवेश के रास्ते से बहार निकल कर मैं ब्रह्म स्थान के पीपल के पेड़ के नीचे पहुंच चूका था।  वहां कम से कम मैं १ घंटा बैठा रहा और रौशनियों के अजीब करतब को गाछी में देखता रहा।  

उसके बाद रात को मैं  सड़क के लम्बे रस्ते से घर लौटा।  
 -सिद्धार्थ सिंह 
(Photo Credited to You tube & Watchers)

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