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हस्ताक्षर



बात उन दिनों की है जब मैं अपने वर्तमान मोहल्ले में नया- नया ही आया था। एक सशक्त हस्ताक्षर से पहली बार रुबरु होना वैसा ही था जैसा इस कहानी की गुणात्मक और तारतम्यता है। पुरे मोहल्ले में कोई भी घर उनके नाम पर खोजा जा सकता था चाहो तो शहर के किसी भी कोने में पूछ कर देख सकते थे।  बड़ा सा बैठका और उन बुजुर्गवार के रिटायरमेंट के बाद तो वो सदैव गुलज़ार ही बना रहता था, लोगों का जमावड़ा सा लगा रहता था।  सफ़ैद धोती और बनियान में वो चेहरे की चमक देखते ही बनती थी और माथे पर लाल तिलक।  कभी- कभी सूती सफ़ेद कुरता और धोती मानो मोहल्ले का कोई बड़ा बिना एक शब्द बोले आप के अन्दर तक झांक रहा हो और प्रतिउत्तर में खामोशी में ही अपने चेहरे की भाव-भंगिमाओ से आप के सभी मनोभावों के उधेर-बुन को सहलाता भी जा रहा हो।  
नीम का पेड़ और बगल में शमी के फूलों से लदा खुबसूरत आँगन किसी अनोखी दुनिया को ही दर्शाता था। अपनी, लोगों से कम ही घुलमिल पाने की आदत पुरानी है जो अभी तक साथ ही चल रही है और शायद मृत्यु शय्या पर चार कांधो के साथ ही छूटेगी। खैर हस्ताक्षर के बैठका के सामने से ही गली जाती थी तो आते- जाते उनके यहाँ लगे जमावड़े की बाते कानो में सुनाई पड़ती ही रहती थी।

लगता था मानो शहर की सभी परेशानियां उनकी अपनी ही थी; कोई न कोई अपने निजी कामो को लेकर उनके पास आया ही रहता था। उनके पास सभी के लिए पर्याप्त समय था और हल तो चुटकियों का काम था। धार्मिक आयोजन हो या सामाजिक सरोकार उनके बिना मुहल्ले का काम ही नहीं चल सकता था। जीवन के उतार- चढाव किस तरह अनुभवों में घुल कर व्यक्ति का निर्माण करते है या यूँ कहा जा सकता है हस्ताक्षर।

 "चल राहे कही गुमनाम न कर दे तुझको, वक़्त की धूल में।" ~ शून्य 

-सिद्धार्थ सिंह 

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