न जाने कितने लोगो ने शहर में होने वाले दंगलों का लुत्फ़ उठाया होगा कभी आमने सामने दाव-पेच लगाते पहलवानो को देखने का मौका तो नहीं मिला पर कहानियां जरूर सुनी है अपने दद्दा पहलवान से- गठीला शरीर और रोबदार आवाज़ का मालिक कुछ ६०-६५ की उम्र होगी। जब भी मिलता उनसे एक पिता का भाव अभिभूत होता और वो हमें अपने जीवन के अनेको अनुभवों के विषय में विस्तार से बताया करते. कभी पहलवानी का जिक्र होता तो दद्दा, सीकिया पहलवान से लेकर न जाने कितने किस्से सुना जाते.
अक्सर कॉलेज के दिनों में हम कुछ दोस्त गाँव की ओर निकल जाते और वहाँ के शांत जीवन का आनंद लेते. खेत के मेढ़, हरियाली, कुआ-तालाब, शाम की गोष्ठी और न जाने क्या-क्या, सच है हर दृष्य में एक अद्भुत कशिश है वहां. एक बार वहाँ रात को रूकने का मौका मिला तो पहलवान की मेहमान-नवाजी कौन अस्वीकार करता.
दद्दा ने बड़ी सी बटलोही में मझे हुए खानसामे की तरह खाना बनाने का प्रबंधन शुरू किया। किस्म-किस्म के मसालों को सही मात्रा में मिलाते हुए लम्बे समय तक पकाने के बाद कटहल के बड़े-बड़े टुकड़े डाले गए, और अंततः लम्बे इंतजार के बाद खुशबु से सराबोर करती वो दिव्य सब्जी तैयार हुई. रात के अंधेरे में सुनहरे टिमटिमाते तारो की बीच वो दद्दा के साथ खाने का ज़ायका आज भी उतना ही नवीन है. मोटी- मोटी रोटियों में लिपटा हर कौर घुले मसलों के साथ प्यार के रूप में हम साथियो के अंतर्मन को पोषित करता जा रहा था.
इसके बाद दद्दा के डिब्बे से पान का एक बीड़ा और थोड़ी गपशप।
अपने जीवन के विस्तृत सोपानों में से दद्दा ने जो अनुभव हमसे साझा किये; वो पूरी निष्ठा से जीवन के हर कठिन-सरल पहलु को डटकर जीने को न जाने कब तक प्रेरित करते रहेंगे.
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