अक्सर जीवन के पड़ाव
में मिलने वाले हमसफ़र समय के साथ पीछे छूट जाते है और आदमी आगे निकल जाता है कुछ सीख
कर; ऐसी ही एक कहानी है 'हमसफ़र.'
शहर गुमनाम, आदमी का
नाम नहीं; कहानी जरूर दिलचस्प है. उससे पहली बार मुखातिब होना बड़ा कष्टदाई था. बड़ी सी काया, स्वक्छंद ठहाके और
मोटी-मोटी अंगुलियों को हवा में घुमाकर शब्दों में प्राण भरता मानो साक्षात् चलता फिरता रोडरोलर हो घर्र-घर्र करता; एक बार अगर किसी को चिपट ले तो हो गया सड़क की तरह रोल्ड
और सपाट.
२० लोगो की प्रारंभिक
जॉब ट्रेनिंग के दौरान वो हमें बहुत कुछ सीखा रहा था और साथ ही साथ जीवन के कई आयामों
या कहो तो अनुभवों को अपने आप हम में घोलता जा रहा था. जब ट्रेनिंग ख़त्म हुई तो हम
में से ६ लोगो को ज्वाइन करने का मौका मिला और मैं निकम्मे की तरह पीछे छूट गया. ज्वाइन
क्या करता आखिर में होने वाली परीक्षा के परिणाम ऐसे थे. ऐसा नहीं है कि क़ाबलियत
नहीं थी पर वो इम्तिहान की कुलबुलाहट और परिणाम की मादकता ले डूबी; ऐसा मुझे लगता
है खैर किसी ने सही ही कहा है 'मन का न हो तो और भी अच्छा.'
कहानी में नया मोड़
तब आया; जब हमसफ़र ने अगले ही दिन मुझे एक सादा सा क्वेश्चन पेपर थमा दिया और सामने
बैठा के सारे प्रश्नो के उत्तर स्वयं लिखवा दिए. प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के दौरान मुझमें
वो सब था जो मुझे स्वयं भी नहीं पता था. मैं सलेक्ट हो गया और फ्लोर पर सबसे अनुभवी
व्यक्ति ने मुझे ट्रेनिंग देना शुरू किया. १५ दिनों के भीतर मैं सबसे अच्छा इम्प्लॉय
बन गया और जल्द ही मुझे एच. आर. की नौकरी का औफर मिला.
खैर ये बात अलग है की वहा किसी
बहुत बड़ी पतली काया ने सांसारिक सही तरीके से वो नौकरी किसी परिचित को दिलवा दिया.
सही है 'मन का न हो तो और भी अच्छा.'
बात हमसफ़र कि तो उसमे
सांसारिक तौर तरीके कूट-कूट कर भरे थे शायद समय ने स्वयं अपने हाथो से घिस-घिस कर
कोई ठोस हीरा तराशा हो. खाने और स्वाद का जबरदस्त शौकीन; मानो स्वाद ही उसे प्रेरणा
देते हो अनगिनत व्यंजनों में से स्वादानुसार बेहतरीन खोज निकालने की.
कहानी का मर्म बस इतना
था उम्र का पड़ाव, समय की प्रेरणा और सर्वमान्य स्वीकार्यता -या तो आप को बदलती है या
आप उसे बदलते है. वर्ना भोजन तो है ही.
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